Sunday, March 22, 2020

नवजीवन- स्वरचित कविता- राहुल पटेल


नवजीवन



हां, यहां डर है, अशांति है, लोग सहमे हुए हैं .
यहां लोग बीमार महसूस कर रहे हैं
हां, यहां लोग आइसोलेशन पर हैं और अफवाहों का बाजार गर्म है
और अब तो मौत भी !
शायद मानव ने अपनी बर्बादी का मंजर खुद गढ़ा है.
जीवन बदल रहा है
क्या सच में जीवन बदल रहा है ?
आकाश में अजीब उदासीपन है मटमैला सा... !
बहुत वर्षों के बाद आज कर्कष शोर नहीं है. शांति है!
भागदौड़ वाली सड़कें मरघट सी सुनसान हो गई है
कोई सुन नही रहा मुझे! पर कोई सुनेगा भी नही!
क्यों?
क्योकि सभ्यता का ये शहर खौफ के आगोश में है.
क्योंकि यह शहर लॉकडाउन है.
पूरी दुनिया अपने पड़ोसियों को नई नजर से देख रही है
पूरी दुनिया नई सच्चाई से रूबरू हो रही है
हां यहां डर है, अशांति है, मौत है और मातम भी!
लेकिन नफरत नहीं है!
हां, लोग आइसोलेशन पर जरूर है पर अकेलापन नहीं है!
अफवाहें जरूर है पर संकीर्णता नहीं है!
शरीर बीमार है पर आत्मा नहीं !
कुछ मृत्यु भी, पर प्यार का पुनर्जन्म भी!
जरूरी क्या है? जरूरी है प्यार!
उठो, जागो और अब कैसे जीवन जीना है यह तय करो!
उच्छ्वास भरो !
सुनो! फिर से कल कारखाने के शोर के बीच चिड़ियों की चहचहाहटे सुनाई देंगी.
आकाश साफ होगा और बसंत फिर आएगा.
प्यार से मिलेंगे सब!
अपने आत्मा की खिड़कियां खोलो!
खाली और सुनसान सड़कों के बीच गुनगुनाओ...
मस्ती भरे तराने गाओ...
जीना इसी का नाम है.

राहुल पटेल
srirahulpatel@gmail.com

Wednesday, October 30, 2019

डाइलिसिस पर बिहार के डायट संस्थान



जिला स्तर पर प्रारंभिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डायट) एक नोडल संस्थान हैं। ये प्रारम्भिक शिक्षा के शिक्षकों के लिए सेवापूर्व और सेवारत प्रशिक्षण कार्यक्रम को सम्पादित करने के लिए अधिकृत हैं। डायट का सभी स्तर पर सुदृढीकरण किया जाना आवश्यक है यथा संगठनात्मक संरचना, भौतिक संसाधन, आधारभूत संरचना, अकादमिक कार्यक्रम, मानव संसाधन और वित्तीय संसाधन आदि। डायट की जिम्मेदारी आरटीई अधिनियम के आने के बाद कई गुना बढ़ जाती है। डाइट का कार्य न केवल शिक्षकों को प्रशिक्षण अपितु स्कूल में गुणवत्ता सुनिश्चित करना, शिक्षकों का व्यावसायिक उन्नयन, जिले में प्रारम्भिक शिक्षा में समन्वय, अकादमिक मूल्यांकन एवं प्रबोधन, ​​अनुसंधान और क्रियात्मक अनुसंधान, कंप्यूटर अनुप्रयोग, शैक्षिक नवाचार एवं जिला स्तर पर अकादमिक योजना निर्माण में भी महती भूमिका निभाते है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के तहत बिहार के सभी जिलों में डाइट की स्थापना की गई है ताकि सेवापूर्व एवं सेवाकालीन प्रशिक्षण से शिक्षा की गुणवत्ता को बढाया जा सकें।

 प्राथमिक शिक्षकों के लिए सेवा पूर्व और प्राथमिक स्कूल के शिक्षक के लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण आयोजित करने हेतु डाइट जिला स्तर पर नोडल संस्था के रूप में कार्य करेंगे।
·     यदि जिला स्तर पर कोई सीटीई नहीं है या मौजूदा सीटीई अपर्याप्त क्षमता की वजह से प्रशिक्षण की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम नहीं है, वहां आरएमएसए के तहत माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का शिक्षक प्रशिक्षण के लिए भी डाइट जिम्मेदार होंगे।
डायट की भूमिका
·     डाइट का भी व्यवस्थित ढांचा होगा और डाइट अध्यापकों, संस्था प्रधानों, वरिष्ठ अध्यापकों और स्कूल प्रबंधन समितियों के लिए व्यावसायिक अभिवृद्धि और नेतृत्व कौशल का विकास आदि पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करेगी।
·     जिला स्तर पर बाइट्स, बीआरसी, सीआरसी के साथ समन्वय करते हुए शैक्षिक-स्रोत केंद्र के रूप में कार्य करेगा।
·     जिला स्तर पर विशेष समूहों के लिए सामग्री निर्माण, क्रियात्मक अनुसंधान सम्बन्धी कार्यक्रम को सम्पादित करेगा।
·     जिला स्तर पर अकादमिक योजना का निर्माण एवं विद्यालयों में शिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाना सुनिश्चित करेगा।
·     जिलों में विशेष समूहों के लिए एवं विद्यालयों के सुदृढ़ीकरण तथा अकादमिक सहयोग के लिए व्यवस्थित योजना तैयार करना।

·     डाइट की आवश्यकता के आधार पर जिला संदर्भ केन्द्रों (डीआरसी) को उन्नत किया जा सकेगा।

Monday, October 7, 2019

मेरे घुमक्कड़ होने का अर्थ : राहुल पटेल



मेरे घुमक्कड़ होने का अर्थ : राहुल पटेल

यात्राएं प्राचीन काल से ही हमारे जीवन का अटूट हिस्सा रहीं हैं। इतिहास गवाह है कि दुनियाँ की विभिन्न सभ्यता और संस्कृतियों के विकास में यात्राओं की भूमिका अहम रही है। ह्वेनसांग-फाह्यान से लेकर इब्नबतूता तक और मार्कोपोलो से लेकर कोलम्बस और वास्कोडिगामा तक। हर युग में यात्रियों के दृढ़ संकल्प और साहस ने इतिहास में नये अध्याय जोड़े हैं। घुम्मकड़ों का मानना है यह दुनियाँ और पूरी सृष्टि एक खुला विश्वविद्यालय है, जिसकी खुली हसीन वादियाँ और अलग-अलग मिजाज और तहजीब के लोग खुली किताबों की तरह हैं। जरुरत है इन्हें पढ़ने के लिए एक बेहतर खोजी नजरिये की और एक सकारात्मक सोच की। आम धारणा है कि घुमक्कड़ी करने में ज्यादा पैसे की आवश्यकता होती है पर यात्रा करते हुए जाना कि यायावरी के लिए पैसे से ज्यादा जरुरी है।


जिन्दगी जीने का एक फकीराना अन्दाज और बेलौस जिन्दगी जीने की गहरी प्यास। फिर साधन तो जुट ही जाते हैं। जोखिम और कठिनाइयाँ तो संगी साथी बन साथ-साथ चलने लगती हैं। अपनी काठमांडू यात्रा के दौरान खट्टे मीठे दोनों ही तरह के अनुभव प्राप्त हुए। इससे पहले भी भारत के कई राज्यों में घूम चुका हूँ। परन्तु ये कई मायनों में उनसे बिल्कुल अलग था। सबसे पहले तो यह भारत से अलग एक नवीन लोकतांत्रिक देश था जहाँ अलग ही तरह की विषम परिस्थितियों का सामना करना था जैसे दुर्गम पहाड़ियां, हथौडा से कठमांडू तक का दिल दहलाने वाला पहाड़ी रास्ता, बरसात का मौसम, फोन का निष्क्रिय हो जाना आदि। परन्तु इस यात्रा में जो सबसे रोमांचित करने वाली बात थी वो थी अपनी खुद की नई रॉयल एनफील्ड बुलेट बाइक! हालांकि बाइक से जाने का निर्णय एक परेसानी का सबब भी साबित हो सकता था क्योकि प्रकृति जितनी खुबसूरत और आकर्षक है उतनी ही कठोर और निर्मम भी। परंतु राहुल सांकृत्यायन के घुम्मकड़ शास्त्र ने मेरे जैसे हजारों लोगों को देश-दुनियाँ को जानने-समझने के लिए घुम्मकड़ी के लिए प्रेरित किया है और अपने विद्यालयी जीवन मे पढ़ी किसी शायर की यह पंक्ति कि–"सैर कर दुनियाँ की गाफिल जिन्दगानी फिर कहाँ! जिन्दगानी गर रही तो यह जवानी फिर कहाँ !" मेरे घुमक्कड़ी स्वभाव को हमेशा प्रेरित करते है।
अभी मैं सकुशल वापस आ तो गया हूँ पर मन तो हमेशा प्राकृति और आध्यात्म के सानिध्य में ही रहने का है। अगली योजना पूर्वोत्तर तथा लेह-लद्दाख की है। पूर्वोत्तर मुझे शुरू से आकर्षित करता रहा है । पर कभी संयोग नही बन सका । संभवतः अगले वर्ष गंगटोक , कलिम्पोंग और दार्जिलिंग की यात्रा होगी। इसी वर्ष नवम्बर में गुजरात की यात्रा भी तय है जिसमें सोमनाथ और द्वारका जैसे अति विशिष्ट आध्यात्मिक स्थल शामिल है। बहरहाल मेरी यात्राओं की स्मृतियां मेरी खुद की कमाई हुई एक मात्र पूंजी है, एक अनमोल संचित कोष है जो कभी नष्ट नही होगा। इसमें बराबर इजाफा होता रहे मैं इस कोशिश में लगा रहूंगा ।

Wednesday, May 8, 2019

परीक्षा की रेस में अंकाकुल बच्चे!!!


परीक्षा के अंक न तो जीवन हैं और न ही जीवन का अंत! लेकिन हमारी आज की शिक्षा प्रणाली 'अंकाकुल' हो गई है, यानी अधिकतम अंकों को हासिल करने हेतु व्याकुल हो गई  है। जिसके जितने ज़्यादा अंक आये वह 'हवा हवाई' रहता है और जिसके कम अंक आये उसकी हवाइयां उड़ जाती हैं! स्कूल भी सामाजिक- सांस्कृतिक अंतरों को समझने में नाकाम रहता है

एक बच्चे को मैंने फोन किया और उसे बताया कि उसने बोर्ड के एग्जाम में 88% अंक हासिल किए हैं जो कि बहुत ही अच्छा है, परंतु यह सुनकर वह जोर जोर से रोने लगा. उसे इतने कम अंक की उम्मीद नहीं थी। उसने 90% से ज्यादा अंको की उम्मीद पाल रखी थी। वह बहुत जोर-जोर से रोए जा रहा था. उसे लग रहा था की उसकी सारी मेहनत बेकार हो गई है । वहीं दूसरी तरफ एक बच्चा पेरेंट्स मीटिंग में अपने अभिभावक के सामने सिर्फ इसलिए रो पड़ा क्योंकि वह अपने अभिभावकों के उम्मीदों पर स्वयं को खरा उतरता नहीं देख पा रहा था। उसने 8वी के यूनिट टेस्ट में बहुत अंक प्राप्त किये थे।
आपको ऐसे कई उदाहरण रोजमर्रा के जीवन में हमारे यहां आस-पास मिल जाएंगे। मैं अभी तक यह समझ नहीं पाया की इम्तिहान, एग्जाम, परीक्षा, पोजीशन, रैंक, परसेंटेज, पोजिशन ग्रेड आदि का असल जिंदगी से कोई जुड़ाव है भी या नहीं। कोई भी परीक्षा अंतिम नहीं होती, अभिभावक इसे खुद भी समझे और अपने बच्चों को भी समझाएं । असफलता का अर्थ कदाचित 'आत्महत्या' नहीं है । असफलता तो सफलता की नई सीढ़ी है जिसे लाखों लोगों ने अपने कर्म के बदौलत सिद्ध किया है।
डॉ. राहुल पटेल

Friday, May 3, 2019

योग्य अवसरों को खोज पाने में असमर्थ युवा




वर्तमान समय में सम्पूर्ण मानव व्यवस्था नित नई चुनौतियों का सामना कर रही है। इस समय समूचे देश में सामाजिक चेतना की लहर व्याप्त है । यह लहर एक बड़े सामाजिक बदलाव की ओर इशारा करती है। इस दृष्टि से एक स्वस्थ एवं जागरूक समाज के निर्माण मे उच्च शिक्षा की भूमिका अहम हो जाती है। आज व्यावसायिक शिक्षा गरीब एवं निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से लगातार दूर होता जा रहा है। सरकारी व्यवसायिक शिक्षा संस्थानो की संख्या में बृद्धि न होना एवं गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानो को केंद्र एवं राज्य सरकारों सरकारों द्वारा प्रोत्साहित किया जाना  निश्चित रूप से सामाजिक विषमता को जन्म देता है। आर्थिक रूप से कमजोर युवा ऐसे संस्थानो की फीस चुकाने मे असमर्थ होते है। 

 अगर ऐसे ही वंचित वर्ग के अकुशल युवाओं की संख्या में वृद्धि होती रही जो अपने लिए योग्य अवसरों को खोज पाने में असमर्थ हो तो यह किसी बड़े सामाजिक बदलाव की ओर इशारा करता है।
राहुल पटेल

Thursday, April 18, 2019

उनके सियासी सफर का काला अध्याय


आज वे सलाखों के पीछे है। शायद अपने आप को कोश रहे होंगे। उन्हें अपने काले करतूतों की सजा मिली है। वह शक्स जो कभी बिहार में सत्ता और राजनीति के पर्याय माने जाते थे। लालू ही बिहार और बिहार ही लालू। पिछड़ो, दलितों और वंचितों के वे मसीहा माने जाते थे। उन्हें इस वर्ग का अपार स्नेह और समर्थन भी प्राप्त था। इसी जन समर्थन की बदौलत वे बिहार में सत्ता के शिखर पुरुष भी बने। उन्होंने पिछ्ड़ो और दलितों के उत्थान का कम भी किया। हालांकि इसकी नीव रखने का कम कर्पूरी ठाकुर ने पहले ही शुरू कर दिया था। कर्पूरी ठाकुर की  तैयार की गई जमीन को लालू प्रसाद जी ने अपने साथियों (राम विलास ,शरद यादव और नीतीश कुमार) के साथ मिलकर जरुर विस्तार दिया। सामंती जकडन और जातीय वर्चस्व वाले बिहार में पिछ्ड़ो, दलितों और आदिवासी हजारो सालो से सामंती शोषण से निकलने को छटपटा रहे थे। ऐसे में जब लालू प्रसाद ने भूरा बाल साफ करो का नारा दिया तो वे अचानक से पिछड़ो के मसीहा बन गये । जनता ने उन्हें सत्ता के शीर्ष तक पहुचाया। किन्तु सत्ता सुख ने उन्हें सामाजिक न्याय के रास्ते से भटका दिया। वे धीरे -धीरे स्व केन्द्रित होने लगे। उन्होंने पिछ्ड़ो का सामाजिक उत्थान तो जरुर किया लेकिन उनके आर्थिक जरुरतो को या तो समझ नही पाये  या फिर जानते हुय भी अनदेखा कर दिया। उनके चश्मे की रोशनी अपने नाते रिश्तेदारों से आगे पहुचना बंद कर दिया। अब अराजकता ,अपहरण अपराध का दौर शुरू हो चुका था, जिसमे उनके अपने एवं करीबी  लोगो की भूमिका भी संदेहास्पद रही। जिसे लालू ने अनदेखा किया। बिहार पूरी दुनिया में पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया। पंद्रह साल तक भी समय रहते न चेतने वाले लालू को नाराज जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। पिछले विधानसभा के चुनाव में नितीश कुमार के साथ गठबंधन से वह अपने बेटों को सदन पहुचाने में न सिर्फ कामयाब रहे बल्कि मंत्रीपद भी दिलाया, परन्तु बिना संघर्ष प्राप्त पद की कीमत बेटे ज्यादा समझ नही सके और सत्ता में वापसी का एक सुंदर मौका खो दिया. बहरहाल लोकसभा का चुनाव अपने पुरे शबाब पर है और भारतीय राजनीती की धुरी रहे लालू प्रसाद यादव रांची के बिरसा मुंडा कारागृह  में अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता में करवटे बदल रहे है। आज़ उनके राजनैतिक जीवन पर ग्रहण लगता दिख रहा है। देखना है की इस मुश्किल समय से पार्टी को निकाल पाने में वे और उनके बेटे कितने कामयाब होते है?
( ये लेखक के अपने विचार हैं.) 

Sunday, October 22, 2017

हमारी प्रक्रियाएं नीरस है, गणित नहीं

हमारी प्रक्रियाएं नीरस है , गणित नहीं!


अक्सर लोग यह कहते हुए मिल जाएंगे की गणित बहुत ही नीरस या गंभीर विषय है. यह  पूरी तरह से उनका पूर्वाग्रह ही है .वास्तव में कोई विषय नीरस या गंभीर नहीं होता बल्कि हमारा रवैया उस विषय को आसान या गंभीर बना देता है . हमारे समाज में गणित के बारे में तमाम ऐसी पूर्वाग्रह ग्रस्त धारणाएँ प्रचलित है- जैसे गणित सबके बस की बात नहीं , मुझे नही आता तो तुम्हे क्या खाक आएगा ,गणित बहुत मेहनत का विषय है, बिना पीटे गणित नही आ सकता आदि .ऐसी ही धारणाओ ने गणित का हौआ बनाया .जबकि स्थिति इसके ठीक विपरीत है. गणित का हम सभी के जीवन से गहरा जुडाव है. हम सोते जागते संख्याओ, आकड़ो से खेलते रहते है. हर पल, हर घडी गणित के संपर्क में रहते है फिर निरसता कैसे?
गणित तब अरुचिकर हो जाता है जब उसे जीवन में होने वाले क्रियाकलापों से बिलकुल अलग कर दिया जाता है. नीरस तरीकों से अंकों और अवधारणाओ को रटवाना प्रारंभ कर दिया जाता है. ठोस वस्तुओं को प्रतीकों के रूप में शामिल करने की बजाय अमूर्त प्रतीकों में उलझा दिया जाता है.केवल परीक्षा में अधिक अंक लाने का शिक्षणशास्त्र शिक्षार्थियों को गणित से दूर करता जा रहा है. 
राहुल पटेल