किसी
भी समाज व देश के विकास में शिक्षा अपनी अहम भूमिका निभाती है। इस विकास की
प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। पिछले बीस वर्षों में
स्कूली शिक्षा का विस्तार हुआ, समाज
में बच्चों कि स्थिति , पाठ्यचर्या सुधार आदि की दिशा में
सकारात्मक प्रयास किए गए, पर अध्यापक के पेसे के साथ लगातार दोयम
दर्जे का व्यवहार होता रहा। छठे वेतन आयोग ने नए वेतनमान दिए, पर इस आयोग के लागू होने के बहुत
पहले बड़ी संख्या में अनेक राज्यो में पारा-शिक्षक ,
शिक्षा-मित्र , संविदा शिक्षक , पंचायत
शिक्षक , प्रखण्ड शिक्षक
आदि भांति-भाति के नामों से जाना जाने वाला सम्पूर्ण हिन्दी भासी राज्यों
में एक प्रकार का अर्ध-शिक्षक बल खड़ा किया जा चुका था। जिनकी मासिक आय रास्ट्रिय
वेतन आयोग द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन
की आधी भी नहीं थी। देश कि सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने तो इन्हे शिक्षा
का शत्रु तक बता डाला।
बहरहाल एक तरफ शिक्षा के
अधिकार कानून का कागज लिए करोड़ों बच्चे
शिक्षा का हक मांगने निकलें हैं, दूसरी
तरफ उनके अधिकार को यथार्थ बनाने वाला व्यक्ति स्वयं संघर्षरत है। फिर सवाल उठता
है की सामाजिक और आर्थिक हैसियत से ठोकर खाता यह पेसा क्या स्वयं के अस्तित्व को
बचा पाएगा?